Sunday 15 December 2013

मासूम या लाटे [ सूक्ष्म कथा ]

' पगली ! मुझे  'लाटा  ' कहती हो तुम  ..सच तो यह है कि तुम भी 'गूंगी ' थी , अपनी बड़े नेत्रों से समय को जाते हुए देखती रही .....चलो एक बात तो अच्छी है ;  इतने लंबे अंतराल के बाद अभी भी हम दोनों की  याददाश्त ठीक है ;
क्यों !! .... है ना :)

Friday 28 June 2013

बचपन

 कितने बौने थे !
'आप ' और 'तुम ' के
 संबोधन
उसके 'तू ' कहने भर से ही
गिर पड़े
'बचपन' फिर जीत गया
..





Thursday 27 June 2013

कब लिखी !!

कब लिखी तुमने
कोई कविता
जब करुणा में द्रवित थे तुम
या थे तुम प्रेम में
या थी मैं विप्रलब्धा
और वियोगी से तुम
न मुझे याद है
ना ही तुम्हें
क्या दोनों प्रेम में थे
मैं तुमसे पूछती हूँ ' प्रेम '


Friday 3 May 2013

मेरे बोल

मेरे तरल बोल
या
हँसी के मीठे बताशे
कुछ अनकहे संवाद
जो उँगलियों में समा
शब्द बन
तुम तक
न पहुँच सके
एक अबूझ
कविता बन
संचित हैं
 ह्रदय पटल पर



Thursday 7 March 2013

बस भी करो

रसोई में लकडियों पर
 प्यार पकाती स्त्री 
खेतों में काम करती स्त्री
पैरों पर बिवाईयां पड़ी स्त्री 
खुरदुरे हाथों वाली 
मशक्कत से दो समय का 
भोजन जुटाती स्त्री 
मजबूरन तन का 
सौदा करती स्त्री 
जून की धूप में ईंटों को 
अपने सिर पर उठाती स्त्री
आ जाओ 
सब स्त्रियों 
 अब बस  भी करो 
आज के दिन 
' महिला-दिवस '
मनाओ  
और फिर अगले साल 
आओ ! 
 

सुन ले

कैसे कहूँ मैं
हैप्पी वीमेंस- डे ! 
मेरे कहनेभर से
नहीं कम होंगे
तुम्हारे लिए 
अनगिनत 
काम के घंटे 
 नहीं दूर होगी
 तुम्हारी उदासी 
नहीं खुल जायेंगी 
तुम्हारी हथकडियां 
क्या मिट जाएंगे  
तुम्हारे आगे खींचे गए 
सदियों पुराने रीति से जोड़ 
तुमको कैद में रखने के लिए 
रिवाजों की जेलें 
कोई एक दिन 
मुक़र्रर मत कर स्त्री !
अपने लिए 
हर एक क्षण 
हर एक  दिवस 
 हर महीने 
तमाम सालों के लिए 
बटोर 
स्वयं अपने द्वारा अर्जित 
की गयी मीठी दुनिया 
 सुन ले कभी 
अपने लिए भी 
अपने दिल की 
और  
खुश रह ..........  


इंसान

मत कहो मुझे ' श्रद्धा '
मत कहो मुझे
' आँचल में ढूध और आँखों में पानी ' वाली स्त्री
मत कहो मुझे ' पराया धन '
मत कहो मुझे
'दाल-मंडी ',' सोनागाछी '  और 'कमाठीपुरा' की वेश्या
मत दो मुझे 'धरती ' जैसी उपमा
मत नवाजो मुझे
 मेरे जन्मजात गुणों की 'विशिष्टताओं ' से
कितना अच्छा हो
यदि तुम मुझे समझो
एक ' इंसान '
स्त्री होने से पहले ....

Thursday 7 February 2013

भूले -बिछड़े

कुम्भ शुरू होने  ही वाला था , ...वे  चारों  लोग कुम्भ की शुरुवात से पहले ही संगम  की झलक   लेने और  आधा  दिन बिताने संगम की ओर   चल पड़े | इन दिनों साबेरियन पक्षियों ने  नदियों  की शोभा बढ़ा रखी है , चाँदी जैसी महीन रेत अभी से किनारों पर बिखरा दी गयी है , जहाँ देखो काम कि अफरा-तफरी मची है ..बस कुम्भ शुरू होने पर मोटी सरपत   [ मोटी  कांस घास ]  तटों पर बिछा दी जायेगी जिससे श्रद्धालु फिसले नहीं | शांत दिखने वाली पर अंदर से गहरी गंगा यहाँ अपने किनारे बदलती रहती है ..लगता है इस बार संगम के लिए श्रद्धालुओं को बोट से नहीं जाना पड़ेगा |
                    ' ओहो- हो कितनी ठंडक है !! ', रावी  ने हाथ मलते हुए  अपने ग्लब्ज पहन लिए , दो दिन पहले ही कोहरे ने इलाहाबाद को ठन्डे सफ़ेद चादर से ढक  रखा था ''हाँ सच  रावी !  लगता है बर्फ पिघल -पिघलकर आ रही है हिमालय से ',   सुनंदा बोली |  गंगाजी के आस-पास कोहरे का पूरा परिवार विराजमान था अपने नन्हें -नन्हें टुकड़ों के साथ ; अठखेलिया   कर हवा उन टुकड़ों का पूरा साथ दे रही थी  फरफराती हुई ....| तेजस  और विनय कार पार्क कर आ ही रहे थे |
                           
                   तेजस  और विनय आ गए ; अब पहले थोड़ा किनारे पैदल सैर की जाय फिर बोटिंग करगें ,सबका यही प्लान बना | साइबेरियन बर्ड्स को नमकीन सेंव खिलाने को लेकर रावी  बहुत उत्साहित होती रही  हैं ;आज भी थी  | यमुना के काले दिखने वाले जल में  चारों ने खूब बोटिंग की ,तेज आवाजों में कोलाहल मचाते सफ़ेद डैने  वाले विदेशी मेहमानों को खूब  सेंव खिलाई | मल्लाह बहुत खुशमिजाज था  , वह भी रावी ,सुनंदा के  खुश होने पर खीसें निपोरता ' एय ! बहूजी अउर ले लें सेंव; चिडियाँ को खिलावे का बहूत पुन्न होत है ,'  | बड़े अधिकारपूवक उसने साथ चलती  नाव के एक केवट को पुकारा था , ' एय रामआसरे ! हियाँ  आ ' , | पता नहीं दोनों मल्लाह की सांठ-गाँठ थी या इस  केवट को  दोनों 'सुनन्दा और रावी' का  बच्चों की भांति चहकना भा गया था ,  उसने  खूब सारे सेंव के पैकेट खरीदवा दिये  ; चुटकीभर सेंव और पाँच -पाँच रूपये के पैकेट ,पक्षियों ने कुछ लोगों को रोजगार दे दिया था  |  विनय और तेजस   कभी झुककर पानी में हाथ डालते तो   कभी फोटो लेने लगते ,यमुना में दो  बजे के सूरज के  झिलमिलाते अक्स  जल के साथ मिल कई-कई रंग बिखेर रहे थे |

 बोट सबको  घुमाकर फिर किनारे ले आयी  और  अब  सब  किसी छप्पर के नीचे  लकड़ी के आड़े-तिरछे बत्तों के जुगाड़ से बनी  तख़्त पर बैठ  साथ लाये स्नैक्स  पर टूट पड़ने की सोच रहे थे |  सब आलथी -पालथी मार बैठ गए और खाने का स्वाद लेने लगे | विनय और तेजस   दोनों महाशय अधलेटे से एक-एक झपकी लेने के फिराक में थे इसलिए दोनों ने अपने सिर के नीचे अपने हाथों का तकिया बना लिया था और घर की भांति लेट गए  | रावी ,  सुनंदा दूर के नज़ारे लेने लगे हालाँकि उन्हें  भी कमर सीधी करने का मन हो रहा था पर यहाँ पर ऑकवर्ड लगता  इसलिए  दोनों  अपने कोहनी को मसनद बना बैठी -अधलेटी रही |  आसपास  पंडों , मजदूरों और मल्लाहों की कई-कई जोड़ी  काइयां आँखे महिलाओं को चोरी से घूरने में लगी थीं |

   कई लोगों के साथ  कुछ  विदेशी सैलानी भी किनारे नजर आ रहे थे , इतने में  ही एक लाल रंग की प्लास्टिक की गोले जितनी बौल रावी के  सिर को छूते हुए  आकर गिरी और दो   दस- बारह साल के लाल गालों वाले विदेशी बच्चे उसे लेने लपके , चूँकि बौल रावी के  सिर को छूकर गयी थी ' लाल गालों ' वाला वह बच्चा रावी के  सामने आकर  विशिष्ट इंग्लिश लहजे में बोला ' आय ऍम वेरी सॉरी ' ,  इससे पहले रावी  कुछ कहती  ; रावी की  नजरें बच्चे पर   आश्चर्य के साथ ठहर गयीं और मुँह से  सालों पहले का एक भूला-बिसरा नाम खुद -ब खुद निकल पड़ा  'मार्क ! ' , इस बच्चे की शक्ल हू-ब -हू मार्क जैसी थी  बस बाल थोड़े लंबे थे   , ' नों ; आय ऍम जेनी  मार्क इज माय  डैड्स नेम  ',  बच्चे ने प्रश्नवाचक की भांति जवाब दिया .... ओह ! तो ये लड़की थी   | रावी के  मुख से मार्क का नाम सुनकर बच्ची ने  करेक्शन किया था | बच्ची द्रुत गति से बौल उठा  कुछ दूरी पर बैठे अपने परिवार के पास  वापस चल दी ...अतीत में झाँकती  रावी भी यंत्रवत उसके पीछे हो ली ...........|

                                                            * * * *
वो भयंकर सर्दी के दिन थे , शामें जल्दी रात की आगोश में डूब जाती | ये एक सुन्दर अनछुआ न्यारा टूरिस्ट प्लेस था ,गर्मी में सड़कों पर रौनक रहती और सर्दी में दार्शनिक , लेखक , फोटोग्राफर टाइप के टूरिस्ट आते थे | नवविवाहित , नखरे वाले  पर खिले गुलदस्ते की भांति दिखने वाले टूरिस्ट तब  जरा कम नजर आते थे | इसी प्रकार टूरिस्ट बनकर आया लेखन से जुड़ा एक परिवार  ; सदा के लिए वहाँ का होकर रह गया | इस परिवार  में माता-पिता और उनके तीन बच्चे थे , मार्क ,सारा ,रेने ...करीब उनकी उम्र  कमश : बारह,दस ,नौ साल  होगी ....शायद    इन  तीनों भाई-बहनों की भी हमउम्र होने के कारण जल्दी ही उनसे मित्रता हो गयी , पहले सर्दी के दो महीने क्रिकेट , स्केटिंग में गुजरे ...अपने घर के बरांडे  में स्केटिंग करते हुए मार्क ने रावी को  भी स्केटिंग सिखा दी थी , हालाँकि अभी भी रावी  उसकी भांति दौड़ नहीं पाती थी फिर भी  उसने  लंबे डग भरने सीख लिए थे |  तीनों में से  हमउम्र होने के कारण मार्क रावी का पक्का दोस्त बन गया था |
                                        मार्क के पिता ने वहाँ के जमीदार से एक छोटा सा घर कुछ सालों के लिए बौंड पर ले लिया था | गर्मी का एक महीना और सर्दी के पूरे दो महीने मार्क का परिवार विदेश से आता और वहाँ बिताता ..बस रावी अपने  तीनों भाई-बहन के साथ  बाकी दोस्त कंचन , नीमा , नीलेश के साथ उनके घर के सामने वाले मैदान पर पहुँचते और मनपसंद खेल क्रिकेट ,सेवन स्टोन , आइस-पाइस  खेलते| मार्क ने रावी को  इंग्लिश सिखाने का और रावी ने  मार्क को हिंदी सिखानी शुरू कर दी थी ....मार्क तो अच्छी हिंदी बोलनी सीख गया था पर रावी  टूटी-फूटी अंग्रेजी के अलावा कुछ ना सीख पायी ..खैर ....'हुँह नहीं सीखनी मुझे इंग्लिश!! ', कभी कभी चिढ़कर बोल उठती वह | रावी के पिता ने   मार्क के हिंदी सीखने पर रावी में  भविष्य  की एक अच्छी टीचर होने के गुण बताए थे |
         विनम्र स्वभाव वाली जेसिका आंटी सबके लिए केक , पुडिंग बनाती  उनका इंग्लिश लहजे में हिंदी में  बात करना  सबको बहुत भला प्रतीत होता | सारा और रेने को  रावी के माँ के हाथ के दूध पाउडर के बने गर्म गुलाब जामुन  पसंद थे और मार्क को  खस्ती मठरियाँ बहुत पसंद थी जिनमें बीच में  चूहे की आँख की भांति साबुत गोल काली मिर्च लगी होती ....मठरी खाते हुए मार्क भूल जाता कि इसमें काली मिर्च है , फटाफट बिन मैनर मुँह में ठूंसता ....कई बार वह काली मिर्च के कारण खांसने लगता और उसकी बेवकूफी पर रावी की  हँसी छूट पड़ती  |
                                                               * * * *
रावी  उस बच्ची के पीछे छप्पर के नीचे पुराने तख़्त तक पहुँच गयी ...एक गोरी महिला ऊँघ रही थी और उसका पति किसी किताब में खोया था , रावी ने  उस दुबले -पतले लम्बे विदेशी शख्स  पर एक  नजर डाल आश्वस्त होना चाहा कि  क्या ये मार्क  ही हैं !!  बाल सुनहरे-श्वेत मिले जुले से, मुँह में कई रेखाएं , कहाँ वो बच्चा और कहाँ ये !!   ये वो सालों पहला वाला मार्क  तो बिलकुल  भी नहीं था  |  रावी  ये बिलकुल भूल चुकी थी कि इस बीच शायद सत्ताईस-अट्ठाईस  साल गुजर चुके हैं ,  उसने  स्वयं भारी -भरकम महिला का रूप ले लिया था उसके  अपने  बचपन के गोरे रंग को समय ने काली झांइयों से भर दिया  था खुद रावी के  बाल आधे श्वेत हो चुके थे ;जिनपर उसने  मेंहदी ओर शिकाकाई की परतें चढ़ा रखी थी  |  मार्क  के  दाहिने ओर  माथे में आँख के पास लगे एक  गहरे कट से रावी ने  उसे पहचान लिया ; यह  मार्क द्वारा बचपन में  पेड़ पर बेवजह फैंके गए पत्थर का निशान था ;जो पेड़ से टकराकर वापस मार्क के  माथे पर आ गिरा था  उसकी आँख फूटने से बच गयी थी  और फिर  सभी बच्चों  को मार्क के कारण  डाठ खानी पड़ी  थी |  सचमुच ये    मार्क  ही हैं   ..झिझकते हुए  रावी ने  उसे 'हलो ' बोला , मार्क ने एक बार सिर उठाया और भावविहीन नजरें डाली ..  हर उस विदेशी की भांति ; जो भारत आते हैं यह प्रश्न सुनते -सुनते थक गया हो कि ' आपको यहाँ कैसा लगा ?'   ..रावी ने  दुबारा थोड़े ऊँचे स्वर में कहा ' हलो मार्क ! मुझे पहचाना ? ' , ये सुनते ही वह एकदम उठ खड़ा हुआ और आश्चर्यचकित हो ;  रावी के   दोनों हाथ कसकर पकड़ झुलाते हुए हर्ष के अतिरेक के साथ लगभग चिल्लाते हुए बोला ' रवी ईई  यू  !! ' [वह  हमेशा  'रावी ' को इसी प्रकार पुकारता  था , रा को र और वी को खींचकर ]  हाउ आर यू ? कैसी हो तुम ? दुबारा हिंदी में पूछकर मुस्कुराया था , अपनी जीवन संगिनी को उठाकर उसने रावी को  मिलवाया और दोनों बच्चों से भी | बचपन को याद कर रावी  उसे अपने पति  तेजस और मित्रों सुनंदा -विनय से मिलाने ले आयी , सब बातचीत कर रहे थे .....|
            'रावी'  गंगा -यमुना को देखकर सोच रही थी ' कुम्भ-मेले '  को हमेशा लोग ' खोने वाले ' लोगों के कारण भी  याद रखते हैं ....पर  हम बचपन के दोस्तों को  मिलाकर तो  संगम  किनारे ने 'कुम्भ- मेले'  से पहले ही  एक भला  सा उपहार दे  दिया   था |



Wednesday 30 January 2013

अबोलापन


ये सुन्दर वादियाँ 
जहाँ तुम नहीं 
तुम्हारी
 अबोली आवाजें 
पंछी बन 
चहचहाती हैं 
झरने कई 
लकदक से 
इठलाते हैं
या फिर 
मीठी नदी की 
स्वप्निल धुन  
नीली-हरी 
छाया के साथ 
लहर-लहर 
गुनगुनाती है 
तुम बस 
अनवरत यूँ ही 
जारी रखना 
अपना अबोलापन 
क्योंकि 
मुझे यही बोल 
भाने लगे हैं अब 

Saturday 26 January 2013

पन्नों से

पुरानी डायरी के
धुंधले पड़े पन्नों से
निस्तेज लिखावटों को
धो-पोंछकर ले आती हूं
तनिक संकोच के साथ
नई तरंगों की दुनिया में
इन्हें भी है
एक नीड़ की दरकार

मेरे भाव

ना हवनकुंड
ना समिधा
ना ही कर्मकांडों के
विद्वान सा है मन
फिर भी
यूँ ही भाव
आहुति बन
अर्पण हुए जाते हैं ......

सादगी

सादगी 
बस 
इतनी सी 
है 
अपनी 
'रूह' की 
शब्द -शब्द 
कर 
देती है 
बयां .....

'प्रकृति '

प्रसून का कोई गीत
जावेद की कोई गजल
गुलजार की कोई नज्म
गुनगुनाती है जब भी जुबाँ
बादल भर लाते हैं जल
पक्षी कलरव मचाते हैं
ये अम्बर हो जाता है
अधिक नीला
नदियाँ करती हैं
अठखेलियाँ
दोनों हाथों में
 सिमट आती है
ये सम्पूर्ण
' प्रकृति '

Saturday 12 January 2013

क्षणिकाएँ

सुना है
वो  लिखा गए
दस्तावेजों  पर
अपना नाम
जमीं पर लिखना
संभव न था
   
       *

हमारी चिरनिद्रा में
अग्नि -स्नान से पूर्व
कल-कल की ध्वनि
सुनायेगी संगीत
अविरल बहेंगे गीत
नश्वर शरीर होगा
पंचतत्व में
विलीन

    *

जल ! तुम्हारा
निरंतर वेग
जीवन की विषमताओं को
भी हर लेता है
आस्था की
एक डुबकी
लगाने भर से