Sunday 30 December 2012

स्त्री

अपहरण के बाद 
देती हूँ अग्निपरीक्षा 
आत्महत्या करने पर 
धरती माता की गोद में 
उठा लेने के कथन से 
स्वर्णाक्षरों में  विभूषित होती हूँ 
कोई  कुसूर ना होने पर भी 
शापित शिला बन जाती हूँ 
कभी  अपनों के सामने सभा में
 की जाती हूँ अपमानित 
कभी कन्या के पैदाइश का 
बन जाती हूँ कारण 
कभी गर्भाशय की दीवारों से 
उखाड़ दी जाती हूँ 
उगने से पहले 
कभी  घटाघोप पर्दों में 
घुट-घुटकर जीने के लिए 
कर दी जाती हूँ मजबूर 
कभी दूसरी औरत 
होने का उठाती हूँ दंश 
मार दी जाती हूँ 
अपने ही प्रेमी द्वारा 
कभी नॉच ली जाती हूँ 
दरिंदों के बीभत्स इरादों से 
निर्जीव लाश बन 
जाती हूँ ताउम्र 
कभी निर्मम दुनिया से 
ले लेती हूँ विदा 
किसी की करनी 
भुगतते हुए 
मैं कोई 'इंसान' कहाँ हूँ !!
बस एक ' स्त्री ' हूँ .............





Thursday 13 December 2012

'माँ '

माँ !
तुम्हारे 'अफगान स्नो' की
मोटी-छोटी शीशी में
कितना कम होता था
खुशबू वाला स्नो
जबकि सामने के
पहाड़ों पर
बिखरा पड़ा था
स्नो का अम्बार !!
वो छोटी लड़की
सोचती रहती
जब कभी बड़ी होगी वह
भर-भर लायेगी
बड़ी शीशियों में
सामने वाला  स्नो
ताकि
चुपके -चुपके
दायें हाथों की उँगलियों से
निकालकर
बायीं हाथ की हथेली में
रखा  गया स्नो
कभी ना पिघले
कभी कम ना हो
और अपने गालों पर
लगाती रहे वो छोटी लड़की
खूब सारा स्नो :))


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माँ !
तुम्हारे  मुलायम
पतले
हल्के बाल
तुम्हारे  हाथों का
स्नेह पाकर
संवरे रहते थे
शांत  से
तुम्हारे चौकोर
मेकअप - बौक्स
में से निकल
एक छोटा पफ
या बड़ा
 पर
हल्का  'बन '
तुम्हारे पतले बालों में
लुक-छुप जाता था
तुम्हारे ऊँचे माथे पर
ईंगुर की बड़ी लाल बिंदी
 रहती थी सजी
मुस्कुराती हुई
तुम्हारे कानों में
वो भारी पर छोटे
कर्णफूलों ने
तुम्हारे बड़े कानों को
झुलाने का लिया था जिम्मा
 तुम्हारे नाक में
बरसों से जमी
साधारण आकार की
वह पीले सोने की लौंग
कितनी संतोषी थी
गले में
काले चरेऊ
 और
घुंघरू वाली सोने की मछलियों
से मढ़ा मंगलसूत्र
नन्हें बच्चे की भांति
 गलबहियां  डाले लिपटा रहता
अपनी कपड़े की गुड़िया को
बरसों
 बचपन में
 तुम्हारे जैसा रूप देने पर भी
 न ला  पायी
स्वयं अपने भीतर मैं
तुम्हारे जैसी आत्मा  .........








Thursday 6 December 2012


अज्ञानी ,
मूर्ख ,
अनपढ़ ,
गंवार,
पागल ,
हैं
फिर भी
सुखनवर
बन
विचरते रहते हैं
 ये  विचार ....
बुद्धिमत्ता
की बेड़ियाँ
कैसे पहनाऊं इन्हें !!

यूँ जिन्दा रहना

जिन्दा रहती हैं
हर स्त्री के भीतर कई
लड़कियां
निश्छल बचपन की
गुड्डी,मन्नू,मिनी ,टिनी
से लेकर
कब्बू ,मुन्नी ,नन्हीं ,पम्मी तक
छींट के झालरदार फ़्रोक से लेकर
नायलेक्स के पाइपिंग वाले फ़्रोक तक
बाटिक प्रिंट और खादी प्रिंट के
 कफ्तान से लेकर
मनोहारी चूड़ीदार तक
नयी नीली डेनिम से लेकर
भूरी ढीली-ढाली कॉडराय तक
लकड़ी की बड़ी अलमारी से
निकाली गयी
माँ की सिल्क की साड़ी में
स्वयं को लपेटे जाने से लेकर
स्वयं की साड़ी मिलने तक
गोल बड़े डिब्बे के माँ के गहनों से
बड़ी नथ को पहनने के असफल प्रयास से लेकर
खुद के ज्यूलरी बॉक्स मिलने तक
अरमानों को लगा लेती है पंख
उड़ती जाती हैं
दोनों हाथों में
मायके की देहरी में
 उछाले गए चावलों में
 सुरक्षित रखती हैं स्नेह
बढ़ाती हैं पग
ससुराल के अनेक रिश्तों को
 एक साथ निभाने तक
जीती हैं कई जीवन एक साथ
स्निग्ध त्वचा से लेकर
महीन झुर्रियों के संसार तक
काले केशों से लेकर
चाँदी तारों के आगमन तक
बन जाती हैं अठारह साल की कन्या
अपनी सहेलियों के बीच
तो कभी ठिठोली कर आती हैं
मित्रों से
माँ बन स्नेह लुटाने से लेकर
दादी -नानी के अटूट सपनों के आने तक
अनेक ह्रदय को बसाती हैं
अपने एक छोटे से ह्रदय में ...........