Saturday 31 December 2011

तरंगे
अनुपस्थितियों के बीच भी 
तुम्हारे होने  के 
 सच के हस्ताक्षर
मौजूद रहते हैं 
तुम्हारे ना होने का 
कारण बनकर 
मस्तिष्क की तरंगे 
तुम तक पहुंचा आती हैं 
सन्देश अनेक 
और दूसरे ही दिन 
बिन कहे ही तुम्हारी 
उपस्थिति दर्ज 
हो जाती है

Friday 30 December 2011


हाइकु

गौर वर्ण तू
यज्ञोपवीत पीत
स्वर्ण से वस्त्र 
       * 
कुंचित केश 
उज्जवल ललाट 
मंद मुस्कान 
      * 
नायक बने
'शिवानी' के तुम यूँ
मत इतराओ 
      *
धीर - गंभीर 
स्मित मुस्कान तेरी 
राम सा रूप

ओक

शब्द सूखे से थे
 कई चीड़
 उग आये थे  शायद
ये किसने फिर
ओक लगाए
 खीच सा लाये जल
 नमी महसूसते ही
 कोंपलें जैसे दूर्वादल
 बन गलीचा बुनने लगी
मुस्कराहट अब
हँसी बन निर्झर बहने लगी
 सलेटी बादल क्षितिज के
 भूरे लाल से हो गए
 कोनों में कमरों के भी
 उजाले से सजने लगे
 बुरांश बना मन
 सरसों सा आँगन
 शूल जैसी
 गर्म हवाएं जैसे
 हिमालय होकर आ गयी
 ओस के साथ मिल
 फिर से बहने लगी

ओक

शब्द सूखे से थे
 कई चीड़
 उग आये थे  शायद
ये किसने फिर
ओक लगाए
 खीच सा लाये जल
 नमी महसूसते ही
 कोंपलें जैसे दूर्वादल
 बन गलीचा बुनने लगी
मुस्कराहट अब
हँसी बन निर्झर बहने लगी
 सलेटी बादल क्षितिज के
 भूरे लाल से हो गए
 कोनों में कमरों के भी
 उजाले से सजने लगे
 बुरांश बना मन
 सरसों सा आँगन
 शूल जैसी
 गर्म हवाएं जैसे
 हिमालय होकर आ गयी
 ओस के साथ मिल
 फिर से बहने लगी