शब्द सूखे से थे
कई चीड़
उग आये थे शायद
ये किसने फिर
ओक लगाए
खीच सा लाये जल
नमी महसूसते ही
कोंपलें जैसे दूर्वादल
बन गलीचा बुनने लगी
मुस्कराहट अब
हँसी बन निर्झर बहने लगी
सलेटी बादल क्षितिज के
भूरे लाल से हो गए
कोनों में कमरों के भी
उजाले से सजने लगे
बुरांश बना मन
सरसों सा आँगन
शूल जैसी
गर्म हवाएं जैसे
हिमालय होकर आ गयी
ओस के साथ मिल
फिर से बहने लगी
कई चीड़
उग आये थे शायद
ये किसने फिर
ओक लगाए
खीच सा लाये जल
नमी महसूसते ही
कोंपलें जैसे दूर्वादल
बन गलीचा बुनने लगी
मुस्कराहट अब
हँसी बन निर्झर बहने लगी
सलेटी बादल क्षितिज के
भूरे लाल से हो गए
कोनों में कमरों के भी
उजाले से सजने लगे
बुरांश बना मन
सरसों सा आँगन
शूल जैसी
गर्म हवाएं जैसे
हिमालय होकर आ गयी
ओस के साथ मिल
फिर से बहने लगी
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