Friday 30 December 2011

ओक

शब्द सूखे से थे
 कई चीड़
 उग आये थे  शायद
ये किसने फिर
ओक लगाए
 खीच सा लाये जल
 नमी महसूसते ही
 कोंपलें जैसे दूर्वादल
 बन गलीचा बुनने लगी
मुस्कराहट अब
हँसी बन निर्झर बहने लगी
 सलेटी बादल क्षितिज के
 भूरे लाल से हो गए
 कोनों में कमरों के भी
 उजाले से सजने लगे
 बुरांश बना मन
 सरसों सा आँगन
 शूल जैसी
 गर्म हवाएं जैसे
 हिमालय होकर आ गयी
 ओस के साथ मिल
 फिर से बहने लगी 

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