Tuesday 24 February 2015

आर्गेनिक चाय

जब कभी अपने हाथों की बनी
ऑर्गेनिक चाय का पीले रंग का कप
रख देते हो तुम मेरे सामने
यह कहकर
सुनो ! इसमें अदरक,बेसिल
और भी बहुत कुछ पड़ा हुआ है
हम्म .....
जानती हूँ मैं
कई मेहनतकशों की मेहनत का नतीजा है ये
दलालों ने चाँदी काटी है ऑर्गेनिक के नाम से
पीनी ही पड़ती है मुझे फिर
और तुम खुशी -खुशी लाये हो इसे
अपनी पसीने की गाढ़ी कमाई से ......

अपनी जन्मस्थली --
:))
जहाँ छोड़ आयी नन्हें पैरों के निशान , घी - चीनी की मोटी लेयर लगी माँ के हाथ की बनी रोटी , आलू के गुटके और लेयर वाले पराँठे , कैना के कुछ पेड़ , खुबानी के पेड़ में हरे -हरे कीड़े , काफल के पेड़ का सलेटी रंग का जोगिया रंग के मुँह वाला बालों से ढका एक मोटा कीड़ा , सुकुमार सुमित्रानंदन जी का पत्थर वाला छोटा घर , हिमालय पर उगता और हिमालय पर ही अस्त होता एक लाल गोला , चिड़ियों का झुंड और कल्लोल , पतली साफ़-सुथरी सड़कें , चीड़ और ओक के साधनारत वृक्ष , गुलाबी गालों वाली सहेलियां और लाल गाल वाले बच्चे, भाई के साथ फ़ुटबाल पर जमाए गए कुछ शाट्स , गिल्ली-डंडे पर दगाबजियाँ , कच्चे दूध का फेस-वाश , अधिक नीला एक अम्बर ,बड़े तारों वाली रात्रि , गालों पर आँसुओं के सूखे बसंत-धारे , चिंतामुक्त निश्छल हँसी ........
सुन ! बचपन ; शायद इस बार तुझसे मिलने आऊं ...
आमीन !
[ कौसानी से सूर्योदय ]

दिगो ....

दिगो ! लाली
कब पैरुल पुलोवर,
कब पैरुल जैकेट ,
कब पैरुल कोट ,
काँ छू इतु ठंड याँ !!
दिगो ! लाली
कब खूल मी गहते दाव,
कब पीयूल काली मर्चक चाहा ,
कब खूल सोंठ्क लाडू ,
काँ छू इतु ठण्ड याँ !!
दिगो ! लाली
कब बणूल स्नो मैन,
कब तापुल बांजे क्वेल ,
कब नापुल ठंडी रोड ,
काँ छू इतु ठण्ड याँ !!
दिगो ! लाली
कब निकालुल बक्सक तल्लि बटी थुल्म ,
कब बिछुल कश्मीरी नमद ,
कब ओढ़ूल ब्याक मोटी रजे ,
काँ छू इतु ठण्ड याँ !!

नोट -
गहते दाव = गहत की दाल , जिसकी तासीर गर्म मानी जाती है
बांजे क्वेल = बाँज /ओक ट्री के कोयले जो ' कोयलों में बेहतरीन ' माने जाते हैं
तल्लि = नीचे
बक्सक = बक्सा / बॉक्स
थुलमा /थुल्म = मुलायम रोंये वाला /प्योर सफ़ेद उन से बना कम्बल
कश्मीरी नमद = कश्मीरी कढ़ाई वाला मुलायम रुई सा गलीचा
ब्याक मोटी रजे = जो शादी में मिली थी 'शनील की वो मोटी रजाई '

I hope कि 'दिगो लाली ' शब्द मैंने उपयुक्त स्थान पर प्रयोग किया है |

हलो ! आइंस्टीन

यूँ ही गर कभी
कॉफ़ी के कप में आ जाएँ ' अल्बर्ट आइंस्टीन '
तो पूछूँगी उनसे -
कॉफ़ी परफेक्ट बनाने का कोई सिद्धांत
कप में चीनी और कॉफ़ी के कणों को
फेंटने की प्रक्रिया के दौरान कप के भीतर
चम्मच चलाने की द्रुत गति
गति और ऊष्मा का सामंजस्य
कप के वलय तल पर कई बार चम्मच चलाने पर
खर्च हुई अपनी ऊर्जा की माप
और !!
और भी कुछ उल्टा-पुल्टा
शायद उनका जटिल मस्तिष्क
पा जाए कुछ आराम ....

' तुम '

याद है तुम्हें !
वो पिछली सर्दी की तस्वीर !!
मेरे हाथ में था नया मोबाइल ,
तुम पढ़ रही थी पेपर
और मैने थमाया था
तुम्हारे हाथ में ग्रीन टी का कप,
'चलो ! एक फोटो हो जाय '
बोला था मै
अपने चश्मे के पीछे से
गहरे काजल से सजी बोलती आँखों से
मुस्कुराई थी तुम
कुछ - कुछ जैसे कहा हो तुमने 'हुँह !! '
'जाओ ! पहले जरा अपने बाल सही कर लो
और अभी तक नहाये भी नहीं हो ;
पगलू जैसे दिख रहे हो :)) ',
'और तुम !! तुम अपने बाल देखो
मेंहदी लगाने लगी हो आजकल,
मै तो नेचुरल रहता हूँ ,
वो अलग बात है तुम अपने लंबे बालों को
पता नहीं कैसे करती हो मेनटेन अब तक !!'
ये कहते हुए चेयर पर बैठ गया था मैं
'मत खिंचाओ पिक ',
यह बुदबुदाते हुए ..कुछ मुँह बनाकर
अरे !
अचानक से गलबहियाँ डाल आ खड़ी हुई थी तुम ,
मेरे पीछे ,
अखबार को जल्दी से फेंक , गर्म चाय का कप छोड़कर ,
क्लिक ! क्लिक !
खींच ली थी मैंने दो पिक ,
इस भरी गर्मी में लगायी है आज ;
अपनी वाल पर
फिर से कहना है मुझे ;
तुम्हारा 'प्रेम '
सर्दी में ऊष्मा देता है मुझे
और
और गर्मी में
असीम ठंडक

:) :) 

' पहाड़ी हँसी '

पहाड़ गर्व से खड़े हैं
पहाड़ पुरातन हैं
पहाड़ अचंभित हैं
पहाड़ केवल ' पहाड़ ' हैं
तभी तो नहीं हँस सकते
एक पहाड़ी लड़की की सी
निश्छल पहाड़ी हँसी

तुम्हारे मन को पढ़ते हुए

निर्मम !
कठोर !
निर्मोही !
ह्रदयहीन !
........
तुम्हें.. जिसमें सुख मिले
वो कोई भी नाम
पुकार सकती हो तुम !
तुम्हारी संतुष्टि और मेरा सुख
कहाँ हैं भला ! अलग-अलग
पूरक हैं हम ; एक - दूसरे के
जानते हुए भी
जाने क्योंकर अनभिज्ञ
रहना चाहती हो तुम !!
मानिनी !
अपने प्रेम की अवहेलना
के बीच
तुम्हारे मन को पढ़ते हुए
सारे नए संबोधन
आत्मसात कर लिए हैं मैंने
--------------------------------
यूँ ही कभी -कभी ; स्त्री के भीतर भी रहता है एक पुरुष

 

' ये जीवन '

स्वप्न सा हो जीवन भले ही
हजारों सपने हैं एक स्वप्न में
स्मृतियों में बजता है अभी भी एक गीत
श्वेत रिबन में अभी भी उलझती हैं उगलियाँ
खट्टे - मीठे बगीचों सी स्मृति
समंदर बन लहराती है अभी भी
तलहटी में ह्रदय के अभी भी छुपे हैं
कई बिना अंकुर वाले बीज
एच. एम.टी. की एक अनुराग घड़ी
रुकी सुइयों के साथ पिता का दुलार
बन अभी भी रखी है
अलमारी के अन्त:स्थल में
हुलसता छोटा मन कभी -कभी
पहुँच जाता है स्कूल अभी भी
चुपचाप शरारतों में शामिल हो
भोली सूरत बना लौट आता है वापस
पुनर्जिवित हो उठता है निष्क्रिय तन
धावक बन जीवन की रिले रेस में
सूर्यघड़ी की गति के साथ
चन्द्रमा और नक्षत्रों में उलझा
अग्रसर है अपने निश्चित गंतव्य की ओर .....

Monday 23 February 2015

' बुना हुआ स्नेह '

' माँ ' अभी भी बुनती है प्यार
हो जाती हैं उत्साहित
किसी के माँ बनने की खबर से
कितना समझाया उनको
' पता है ! अब कोई वैल्यू नहीं है इन सबकी
असल में अब कोई नहीं जानता
स्नेहसिक्त फंदों का मोल
आँखों में जोर पड़ेगा
वो तुम्हारे दायें हाथ की कलाई का दर्द ,
डॉ . ऑपरेशन की सलाह देते हैं जिसकी
और
तुम हो कि मानती नहीं !! '
अपनी बेटियों से पड़ी कई झिडकियों का
होता नहीं उनको कुछ भी असर
एक -एक फंदे को अपनी
पुराने चश्में के मोटे शीशे के इस पार से देख
' बेबी सूट ' पर उकेर देती हैं
कई कल्पनाएँ
पहले बेटे- बेटी के लिए ,
उनके बच्चों के लिए
अब फिर नाती - पोते के बच्चों के लिए भी ...
माँ ! तुम कहाँ से लाती हो इतनी उर्जा
सब कहते हैं जहाँ -जहाँ तुम रही
वहाँ सब नए बच्चों को मिला
तुम्हारा सिला हुआ प्यार ,
ऊन की डोरियों में बुना तुम्हारा स्नेह
तुम्हारे भाव कितने निस्स्वार्थ हैं माँ .....

 

' श्रम '

पता है !
उन जरदोजी वर्क से सजी फेब्रिक
सिल्क के ताने-बानों से बने थानों
सलमे-सितारे से बनी फूल -पत्तियों के पीछे का सच !!
किशोर - किशोरियों के मुस्तैद हाथों का कमाल है ये
सीलन भरी कोठरियों में लिखी गयी रुबाइयाँ हैं ये
रासायनिक रंगों से खाँसती साँसों और
बीमार चमड़ियों से
लिए गए रंग हैं ये
दिवास्वप्न देखने वाले नेत्रों के
ख़्वाब हैं ये ; जो उकेरे गए हैं कपड़ों में
'डिजानर ' के नाम का टैग लगते ही
वे मेहनतकश भुला दिए जाते है
' पहनने वालों ' द्वारा
बस याद रहता है -
बड़े शो रूम और रैम्प पर जलवे बिखेरने वाले मौडल या फिर
वो जाना -माना डिजाइनर