Tuesday 24 February 2015

तुम्हारे मन को पढ़ते हुए

निर्मम !
कठोर !
निर्मोही !
ह्रदयहीन !
........
तुम्हें.. जिसमें सुख मिले
वो कोई भी नाम
पुकार सकती हो तुम !
तुम्हारी संतुष्टि और मेरा सुख
कहाँ हैं भला ! अलग-अलग
पूरक हैं हम ; एक - दूसरे के
जानते हुए भी
जाने क्योंकर अनभिज्ञ
रहना चाहती हो तुम !!
मानिनी !
अपने प्रेम की अवहेलना
के बीच
तुम्हारे मन को पढ़ते हुए
सारे नए संबोधन
आत्मसात कर लिए हैं मैंने
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यूँ ही कभी -कभी ; स्त्री के भीतर भी रहता है एक पुरुष

 

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