Thursday, 13 December 2012

'माँ '

माँ !
तुम्हारे 'अफगान स्नो' की
मोटी-छोटी शीशी में
कितना कम होता था
खुशबू वाला स्नो
जबकि सामने के
पहाड़ों पर
बिखरा पड़ा था
स्नो का अम्बार !!
वो छोटी लड़की
सोचती रहती
जब कभी बड़ी होगी वह
भर-भर लायेगी
बड़ी शीशियों में
सामने वाला  स्नो
ताकि
चुपके -चुपके
दायें हाथों की उँगलियों से
निकालकर
बायीं हाथ की हथेली में
रखा  गया स्नो
कभी ना पिघले
कभी कम ना हो
और अपने गालों पर
लगाती रहे वो छोटी लड़की
खूब सारा स्नो :))


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माँ !
तुम्हारे  मुलायम
पतले
हल्के बाल
तुम्हारे  हाथों का
स्नेह पाकर
संवरे रहते थे
शांत  से
तुम्हारे चौकोर
मेकअप - बौक्स
में से निकल
एक छोटा पफ
या बड़ा
 पर
हल्का  'बन '
तुम्हारे पतले बालों में
लुक-छुप जाता था
तुम्हारे ऊँचे माथे पर
ईंगुर की बड़ी लाल बिंदी
 रहती थी सजी
मुस्कुराती हुई
तुम्हारे कानों में
वो भारी पर छोटे
कर्णफूलों ने
तुम्हारे बड़े कानों को
झुलाने का लिया था जिम्मा
 तुम्हारे नाक में
बरसों से जमी
साधारण आकार की
वह पीले सोने की लौंग
कितनी संतोषी थी
गले में
काले चरेऊ
 और
घुंघरू वाली सोने की मछलियों
से मढ़ा मंगलसूत्र
नन्हें बच्चे की भांति
 गलबहियां  डाले लिपटा रहता
अपनी कपड़े की गुड़िया को
बरसों
 बचपन में
 तुम्हारे जैसा रूप देने पर भी
 न ला  पायी
स्वयं अपने भीतर मैं
तुम्हारे जैसी आत्मा  .........








4 comments:

  1. बहुत सुन्दर कविताएँ ! 'अफगान स्नो ' ने पहली रचना को विशिष्ट बना दिया है ! उन दिनों यह सर्वाधिक प्रिय और बहुत अच्छी खुशबू वाली क्रीम हुआ करती थी ! बेटी का मां को वह चेहरे पर लगाते देखना और फिर एक दिन पहाड़ से जी भर स्नो उठा ले आने का ख्याल...भोलापन लिए अलग अहसास है ! दूसरी कविता मां की तस्वीर की तरह है ! अंतिम पंक्तियाँ : " बचपन में/ तुम्हारे जैसा रूप देने पर भी/ न ला पायी/ स्वयं अपने भीतर मैं/ तुम्हारे जैसी आत्मा" बहुत कुछ कहती सुन्दर पंक्तियाँ हैं !

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    1. सादर धन्यवाद , अश्विनी जी ....

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  2. माँ के प्यार में निस्वार्थ भाव को समेटती आपकी खुबसूरत रचना.....

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    1. धन्यवाद :)) डियर सुषमा ...........

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