Monday, 27 February 2012

लिख ही दूँ

क्या लिखूं , कैसे लिखूं
 अपने शहर के फेफड़े के बारे में
जिनमें हैं अनेक शाखाएं ....
लिखूं  इन लघु -दीर्घ ,
 पत्तियों के बारे में, जो अभी भी झर रही हैं
लहराते हुए झरने की भांति
या कब्र की देखभाल करते उस व्यक्ति के बारे में ,
जिसे आज पहली बार देखा है ;
 गिलहरियों और चिड़ियों को ' पारले G ' खिलाते हुए
या खर - खर की  झाड़ू की  आवाज के साथ ,
सड़क स्वच्छ करते उस व्यक्ति के बारे में
जो निर्विकार भाव से अपने कार्य में खोया है .....
या फिर उन तीन गिलहरियों के बारे में जो ,
धमाचौकड़ी मचा रही हैं ;
 वृक्षों से सड़क  और सड़क से वृक्षों तक  ......                                        
या उन मालियों के बारे में ,
जिन्होंने कुदरत के साथ मिलकर
सजा दिए हैं बेल-बूटे हरे गलीचों में....
या फिर उस गाढ़े धुंवे की कहानी कहूँ ,
जो सूखी पत्तियों के जलने के  बाद
प्रतीत होता है अनंत को जाते हुए
या सिल्वर और नारंगी रंग से रंगी तोपों के बारे में कहूँ ,
जो आजकल  बच्चों का  घोड़ा बनी हैं                                  
या भव्य पब्लिक लायब्रेरी के ऊपर
पूरी बिरादरी के साथ जुटे कौवों  की
काँव - काँव लिखू ,
जो आस-पास ही  सजे किसी
महाभोज के लिए जुटे हैं
असमंजस में हूँ .........
  पर  सोचती हूँ
न ही लिखूँ कुछ
इन फूलों की कहानी -
इनकी  ही  जुबानी
 बेहतर रहेगी
कुछ पलों का सुकून तो देगी  ,
 तनाव भरी जिंदगी से ............     
                                                       


10 comments:

  1. आखिर आपने लिख ही दिया..... बहुत ही प्रभावशाली रचना.....

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  2. sunder...naman aapko...rachnaa ko bhee....

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  3. धन्यवाद मित्रों ||

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  4. वाह...आज बहुत दिन बाद इधर आना हुआ.....आपकी यह कविता बेहद अच्छी लगी....थोड़ा अचंभित भी हुआ....लेकिन विश्वास था आप लिखती होंगी.....अक्सर आपकी छोटी-छोटी किस्स्गोई पढ़ने को मिलती थी....लेकिन कविता में भी आपका दखल बेहद उम्दा है....अब अक्सर इधर आया करूँगा....आप लिखा कीजिये.......

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    1. धन्यवाद :)) विक्रम ..........

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