Wednesday, 30 January 2013

अबोलापन


ये सुन्दर वादियाँ 
जहाँ तुम नहीं 
तुम्हारी
 अबोली आवाजें 
पंछी बन 
चहचहाती हैं 
झरने कई 
लकदक से 
इठलाते हैं
या फिर 
मीठी नदी की 
स्वप्निल धुन  
नीली-हरी 
छाया के साथ 
लहर-लहर 
गुनगुनाती है 
तुम बस 
अनवरत यूँ ही 
जारी रखना 
अपना अबोलापन 
क्योंकि 
मुझे यही बोल 
भाने लगे हैं अब 

Saturday, 26 January 2013

पन्नों से

पुरानी डायरी के
धुंधले पड़े पन्नों से
निस्तेज लिखावटों को
धो-पोंछकर ले आती हूं
तनिक संकोच के साथ
नई तरंगों की दुनिया में
इन्हें भी है
एक नीड़ की दरकार

मेरे भाव

ना हवनकुंड
ना समिधा
ना ही कर्मकांडों के
विद्वान सा है मन
फिर भी
यूँ ही भाव
आहुति बन
अर्पण हुए जाते हैं ......

सादगी

सादगी 
बस 
इतनी सी 
है 
अपनी 
'रूह' की 
शब्द -शब्द 
कर 
देती है 
बयां .....

'प्रकृति '

प्रसून का कोई गीत
जावेद की कोई गजल
गुलजार की कोई नज्म
गुनगुनाती है जब भी जुबाँ
बादल भर लाते हैं जल
पक्षी कलरव मचाते हैं
ये अम्बर हो जाता है
अधिक नीला
नदियाँ करती हैं
अठखेलियाँ
दोनों हाथों में
 सिमट आती है
ये सम्पूर्ण
' प्रकृति '

Saturday, 12 January 2013

क्षणिकाएँ

सुना है
वो  लिखा गए
दस्तावेजों  पर
अपना नाम
जमीं पर लिखना
संभव न था
   
       *

हमारी चिरनिद्रा में
अग्नि -स्नान से पूर्व
कल-कल की ध्वनि
सुनायेगी संगीत
अविरल बहेंगे गीत
नश्वर शरीर होगा
पंचतत्व में
विलीन

    *

जल ! तुम्हारा
निरंतर वेग
जीवन की विषमताओं को
भी हर लेता है
आस्था की
एक डुबकी
लगाने भर से