Thursday, 7 March 2013

बस भी करो

रसोई में लकडियों पर
 प्यार पकाती स्त्री 
खेतों में काम करती स्त्री
पैरों पर बिवाईयां पड़ी स्त्री 
खुरदुरे हाथों वाली 
मशक्कत से दो समय का 
भोजन जुटाती स्त्री 
मजबूरन तन का 
सौदा करती स्त्री 
जून की धूप में ईंटों को 
अपने सिर पर उठाती स्त्री
आ जाओ 
सब स्त्रियों 
 अब बस  भी करो 
आज के दिन 
' महिला-दिवस '
मनाओ  
और फिर अगले साल 
आओ ! 
 

सुन ले

कैसे कहूँ मैं
हैप्पी वीमेंस- डे ! 
मेरे कहनेभर से
नहीं कम होंगे
तुम्हारे लिए 
अनगिनत 
काम के घंटे 
 नहीं दूर होगी
 तुम्हारी उदासी 
नहीं खुल जायेंगी 
तुम्हारी हथकडियां 
क्या मिट जाएंगे  
तुम्हारे आगे खींचे गए 
सदियों पुराने रीति से जोड़ 
तुमको कैद में रखने के लिए 
रिवाजों की जेलें 
कोई एक दिन 
मुक़र्रर मत कर स्त्री !
अपने लिए 
हर एक क्षण 
हर एक  दिवस 
 हर महीने 
तमाम सालों के लिए 
बटोर 
स्वयं अपने द्वारा अर्जित 
की गयी मीठी दुनिया 
 सुन ले कभी 
अपने लिए भी 
अपने दिल की 
और  
खुश रह ..........  


इंसान

मत कहो मुझे ' श्रद्धा '
मत कहो मुझे
' आँचल में ढूध और आँखों में पानी ' वाली स्त्री
मत कहो मुझे ' पराया धन '
मत कहो मुझे
'दाल-मंडी ',' सोनागाछी '  और 'कमाठीपुरा' की वेश्या
मत दो मुझे 'धरती ' जैसी उपमा
मत नवाजो मुझे
 मेरे जन्मजात गुणों की 'विशिष्टताओं ' से
कितना अच्छा हो
यदि तुम मुझे समझो
एक ' इंसान '
स्त्री होने से पहले ....