Monday, 8 December 2014

एक दोस्त नज्म जैसा

अरसों बाद
एक पुराने ..बहुत पुराने
दोस्त से मिलकर ; लगा कुछ ऐसे
सालों से ..साँसों में अटकी
कोई भूली-बिसरी नज्म
जुबाँ पर आ गयी हो जैसे
- श्री भारत लोहनी
.......................
फिर ...ना जाने क्यों
सुनाई ना सकी वो नज्म
गाई भी ना गयी
हर्फ़ गले से निकल
आँखों के आगे छा गए
कुछ गडमड्ड
जैसे
अश्क में तैर रही हो नज्म
फिर से
सुदूर कहीं गुम होने के लिए ....
-- प्रतिभा

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण...

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  2. बहुत बहुत धन्यवाद ! कैलाश जी ,
    श्री लोहनी जी का भी आभार जिनके शब्दों ने मुझे प्रेरित किया |

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