Sunday, 30 November 2014

आशा -तृष्णा

उम्मीदों के झोले में बैठी
आस
प्रकाश छिद्रों से
झाँकती है बाहर
मुहाने बंद हैं
चारों दिशाओं में
भटकती है
मृग तृष्णा सी
खामोश है समंदर
फिर ये
कौन सा ज्वार है
कभी रिक्तता
कर लेती है घर
और
कभी कुलाँचें
मार आती है भावुकता
मन की दीवारों पर
लिखी जा रही है
अभिव्यक्ति की
अबूझ रचनायें
मौन
की परिभाभाषा के बीच
ये कौन से लेखनी है
जिसकी अमिट स्याही
जोड़े हुए है हमें
एक - दूसरे से ......

 

Monday, 24 November 2014

सिगरेट

अखिल बालकनी पर चहलकदमी कर रहा है ....बालकनी पर उसके साथ इस समय उसकी साथी बनती है ' सिगरेट ' , सिगरेट के तेज और लंबे कश लेकर वह कभी अपनी सोसाइटी के पार्क पर नजर डालता है तो कभी अपने उँगलियों में फंसी इस सिगरेट पर , ...बेटी की नजर से बचकर वह चुपचाप इधर आ जाता है...कितनी कोशिश की है उसने सिगरेट छोड़ने की ..पर छूटती ही नहीं ....
' डैड ! ६ बज गए हैं ..चाय रखी है ..ठंडी हो जायेगी ..पी लीजिए !' , बेटी ने चाय की ट्रे टेबल पर रखकर डैड को आवाज दी |
अखिल जल्दी से सिगरेट ऐश-ट्रे में कुचलता है ..मुस्कराते हुए अंदर आ बेटी पर एक प्यारभरी नजर डालते हुए सोचता है ' कितना खयाल रखती है किट्टू उसका ...पढते-पढते बिलकुल नहीं भूलती कि डैड को ठीक टाइम पर चाय चाहिए , ये वही किट्टू है नाइंथ में पढ़ने वाली ; जिसे वह प्रतिदिन सुबह मलाई छानकर ' दूध ' देने पर भी किट्टू से सुनता है - ' डैड इसमें फिर से मलाई है ', ' चल पी ले चुपचाप बहाने मत कर ', कह बेटी के हाथ में गिलास थमा देता है |
अखिल को डर है किसी दिन बेटी उसका सिगरेट केस अधिकारपूर्वक उठाकर डस्टबिन में डाल देगी ये कहते हुए कि ' हमारे फेफड़े ऑक्सीजन सोखने के लिए बने हैं ; धुवाँ सोखने के लिए नहीं ! ', तब क्या सचमुच छोड़ पायेगा वो सिगरेट !
क्योंकि बेटियों को अपने पिता की माँ बनते देर नहीं लगती ...पिता की देखभाल वो बिलकुल ' माँ ' की भाँति करती है .........|

'नवरात्र '

चटाक ! ' रुको माही .. गेहूँ छू ली तुम !! '
दादी ने भवें चढा बुरा सा मुँह बना , कर्कश आवाज में माही को फटकारते हुए एक करारा चाँटा रसीद किया |
परात पर सूखते ये गेहूँ ' नौ कुँवारी नन्हीं कन्याओं के भोजन ' के लिए थे|