Tuesday, 9 September 2014

बस यूँ भी ...

उम्मीदों के झोले में बैठी
आस
प्रकाश छिद्रों से
झाँकती है बाहर
मुहाने बंद हैं
चारों दिशाओं में
भटकती है
मृग तृष्णा सी
खामोश है समंदर
फिर ये
कौन सा ज्वार है
कभी रिक्तता
कर लेती है घर
और
कभी कुलाँचें
मार आती है भावुकता
मन की दीवारों पर
लिखी जा रही है
अभिव्यक्ति की
अबूझ रचनायें
मौन
की परिभाषा के बीच
ये कौन से लेखनी है
जिसकी अमिट स्याही
जोड़े हुए है हमें
एक - दूसरे से ......


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